उपन्यास >> मामूली चीजों का देवता मामूली चीजों का देवताअरुन्धति रॉय
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भारतीय यथार्थ की गहन, फंतासी के जादू को छूती हुई रचना...
Mamuli cheejon ka devta
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक विशुद्ध व्यवहारिक अर्थ में तो शायद यह कहना सही होगा कि यह सब उस समय शुरू हुआ, जब सोफ़ी मोल आयमनम आयी। शायद यह सच है कि एक ही दिन में चीज़ें बदल सकती हैं। कि चन्द घण्टे समूची जिन्दगियों के नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। और यह कि जब वे ऐसा करते हैं, उन चन्द घण्टों को किसी जले हुए घर से बचाये गये अवशेषों की तरह-करियाई हुई घड़ी, आँच लगी तस्वीर, झुलसा हुआ फ़र्नीचर-खँडहरों में समेट कर उनकी जाँच-परख करनी पड़ती है। सँजोना पड़ता है। उनका लेखा-जोखा करना पड़ता है।
छोटी-छोटी घटनाएँ, मामूली चीज़ें, टूटी-फूटी और किसी से जोड़ी गयीं। नये अर्थों से भरी। अचानक वे किसी कहानी की निवर्ण हडिडयाँ बन जाती हैं।
फिर भी, यह कहना कि वह सब कुछ तब शुरू हुआ जब सोफ़ी मोल आयमनम आयी, उसे देखने का महज एक पहलू है।
साथ ही यह दावा भी किया जा सकता था कि वह प्रकरण सचमुच हजारों साल पहले शुरू हुआ था। मार्क्सवादियों के आने से बहुत पहले। अंग्रेज़ों के मलाबार पर कब्ज़ा करने से पहले, डच उत्थान से पहले, वास्को डि गामा के आगमन से पहले, जमोरिन की कालिकट विजय से पहले।
किश्ती में सवार ईसाइयत के आगमन और चाय की थैली से चाय की तरह रिस कर केरल में उसके फैल जाने से भी बहुत पहले हुई थी।
कि वह सब कुछ दरअसल उन दिनों शुरू हुआ जब प्रेम के कानून बने। वे कानून जो निर्धारित करते थे कि किस से प्रेम किया जाना चाहिए, और कैसे। और कितना।
बहरहाल, व्यावहारिक रूप से एक नितान्त व्यावहारिक दुनिया में वह दिसम्बर उनहत्तर का (उन्नीस सौ अनुच्चरित था) एक आसमानी नीला दिन था। एक आसमानी रंग की प्लिमथ, अपने टेलफ़िनों में सूरज को लिए, धान के युवा खेतों और रबर के बूढ़े पेड़ों को तेजी से पीछे छोड़ती कोचीन की तरफ भागी जा रही थी....
छोटी-छोटी घटनाएँ, मामूली चीज़ें, टूटी-फूटी और किसी से जोड़ी गयीं। नये अर्थों से भरी। अचानक वे किसी कहानी की निवर्ण हडिडयाँ बन जाती हैं।
फिर भी, यह कहना कि वह सब कुछ तब शुरू हुआ जब सोफ़ी मोल आयमनम आयी, उसे देखने का महज एक पहलू है।
साथ ही यह दावा भी किया जा सकता था कि वह प्रकरण सचमुच हजारों साल पहले शुरू हुआ था। मार्क्सवादियों के आने से बहुत पहले। अंग्रेज़ों के मलाबार पर कब्ज़ा करने से पहले, डच उत्थान से पहले, वास्को डि गामा के आगमन से पहले, जमोरिन की कालिकट विजय से पहले।
किश्ती में सवार ईसाइयत के आगमन और चाय की थैली से चाय की तरह रिस कर केरल में उसके फैल जाने से भी बहुत पहले हुई थी।
कि वह सब कुछ दरअसल उन दिनों शुरू हुआ जब प्रेम के कानून बने। वे कानून जो निर्धारित करते थे कि किस से प्रेम किया जाना चाहिए, और कैसे। और कितना।
बहरहाल, व्यावहारिक रूप से एक नितान्त व्यावहारिक दुनिया में वह दिसम्बर उनहत्तर का (उन्नीस सौ अनुच्चरित था) एक आसमानी नीला दिन था। एक आसमानी रंग की प्लिमथ, अपने टेलफ़िनों में सूरज को लिए, धान के युवा खेतों और रबर के बूढ़े पेड़ों को तेजी से पीछे छोड़ती कोचीन की तरफ भागी जा रही थी....
‘यह पुस्तक अपने सब वादे पूरे करती है।’
बुकर पुरस्कार संस्तुति, 14 अक्टूबर, 1997
विश्व परिदृश्य पर चर्चित अरुंधती राय की औपन्यासिक कृति ‘मामूली चीजों का देवता’ भारतीय रचनात्मकता की अपूर्व अभिव्यक्ति और उपलब्धि है। नीलाभ द्वारा प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद पाठक को मूल संतुष्टि देता है।
कृष्णा सोबती
अरुंधती राय का उपन्यास ‘मामूली चीजों का देवता’ मेरी दृष्टि में एक असाधारण, ‘गैर-मामूली’ कथा-कृति है। वह एक सर्वथा प्रतिकूल परिस्थितियों में उमगी ऐसी दारुण प्रेमकथा है, जो छोटी अदृश्य चाजों के बीच जन्म लेती हुई एक झंझावत की तरह कुछ लोगों की जिन्दगी को हमेशा के लिए बदल देती है... भाषा का मांसल, ऐन्द्रिक सौन्दर्य केरल के घने झुरमुटों, तालों नदियों की तरह समूची कथा के भीतर एक संगीत की तरह प्रवाहित होता रहता है।
निर्मल वर्मा
भारतीय यथार्थ की गहन, श्रेष्ठ प्रस्तुति - फंतासी के जादू को छूती हुई... पढ़ चुकने पर नए किस्म की तीक्ष्णता और गीतात्मक त्रासदी का असामान्य अनुभूति...
श्रीलाल शुक्ल
1
पैराडाइज़ अचार और मुरब्बे
आयनस में मई एक गर्म, गुमसुम महीना होता है। दिन लम्बे, उन्मन और उमस-भरे होते हैं। नदी सिकुड़-सिमट जाती है और काले कौए थिर, धूसर-हरे पेड़ों में दमकते आमों को खा-खाकर अघाते रहते हैं। लाल-लाल केले पकते हैं। कटहल फट पड़ते हैं। लम्पट भँवरे फलों की महक-लदी हवा में बेमक़सद बेवक़ूफ़ी से गुनगुनाते हैं। फिर वे खिड़कियों के साफ़-शफ़्फ़ाफ़ शीशों से टकराकर अचेत हो, धूप में अपनी स्तम्भित स्थूलता के साथ स्वर्ग सिधार जाते हैं।
रातें साफ़ होती हैं, मगर आलस और अवसाद-भरी उम्मीद से रची-बसीं।
लेकिन जून के शुरू में दक्षिण पश्चिमी मॉनसून टूट पड़ती है और फिर हवा और पानी के तीन महीने आते हैं और उनके बीच तीखी, चमकदार धूप की छोटी-छोटी परियाँ, जिन्हें रोमांचित बच्चे खेलने के लिए झपट लेते हैं। इर्द-गिर्द के देहाती इलाके पर एक निर्लज्ज हरियाली छा जाती है। टैपियोका की बाड़ों के जड़ पकड़ने और फूलने के साथ ही मेड़ें ओझल हो जाती हैं। ईंट की दीवार पर काई का हरापन चढ़ जाता है। काली मिर्च की लतरें बिजली के खम्बों पर साँप की तरह चढ़ती नज़र आती हैं। जंगली लताएँ मुर्रम के कँकरीले किनारों में फूट कर पानी में डूबी सड़कों पर पसर जाती हैं।
बाजारों में नावें चलने लगती हैं। और सड़कों पर पी.डब्लू.डी. के गड्ढ़ों में भरे पानी के डबरों में छोटी-छोटी मछलियाँ नमूदार होती हैं।
वर्षा हो रही थी जब राहेल आयमनम लौटी। तिरछी, रुपहली रस्सियाँ कच्ची मिट्टी को गोलियों की बौछार की तरह खूँदती हुईं उस पर बरस रही थीं। पहाड़ी पर बने पुराने घर ने अपनी ढलवाँ, तिकोनी छत किसी नीची टोपी की तरह कानों को ढँकते हुए पहन रखी थी। दीवारें, जिन पर काई की धारियाँ थीं, नरम हो गयी थीं और ज़मीन से ऊपर को चढ़ने वाली सीलन से कुछ-कुछ फूल आयी थीं। जंगल बनी बेतरतीब बगिया नन्हें-नन्हें जीवों की खुसफुस और दौड़-भाग से भरी हुई थी। झाड़ियों में दुबका एक धामन अपनी देह एक चमकते हुए पत्थर से रगड़ रहा था। पाले, प्रणयाकांक्षी मेढ़क काई-भरे पोखर में संगियों का तलाश करते, तैरते फिर रहे थे। एक भीगा नेवला मकान को जाने वाले, पत्तों से अटे, रास्ते पर कौंधता हुआ निकल गया।
मकान अपने आप में ख़ाली लग रहा था। खिड़कियाँ –दरवाजे़ बन्द थे। सामने का बरामदा वीरान था। साज-सज्जा रहित। लेकिन क्रोम के चमकते टेल-फ़िनों वाली, आसमानी रंग की प्लिमथ गाड़ी अब भी बाहर खड़ी थी और घर के भीतर बेबी कॉचम्मा अब भी जीवित थी।
वह राहेल की सबसे छोटी नानी-बुआ थी। उसके नाना की छोटी बहन। नाम तो उसका दरअसल नवोमी था, नवोमी आइप, लेकिन सब उसको बेबी कहकर बुलाते थे। बेबी कॉचम्मा वह तब बनी, जब वह इतनी बड़ी हो गयी कि बुआ बन सके। वैसे, राहेल उससे नहीं मिलने आयी थी। न नातिन को इस बारे में कोई भ्रम था, न नानी-बुआ को। राहेल तो दरअसल अपने भाई एस्ता को देखने आयी थी। वे डिम्बों-वाले जुड़वाँ थे। डॉक्टरों ने उन्हें ‘डाइज़ीगॉटिक’ कहा था। दो अलग-अलग, लेकिन एक ही समय में गर्भ धारण करने वाले, डिम्बों से जन्में। एस्ता-एस्ताप्पेन-अठारह मिनट बड़ा था।
वे कभी एक-जैसे नहीं लगे-एस्ता और राहेल, और जब वे बच्चे थे, सींकिया बाँहों और सपाट सीनों वाले, पेट के कीड़ों से परेशान, एल्विस प्रेस्ली मार्का बुल्ले सजाये, तब भी आयमनम वाले घर पर चन्दे के लिए अक्सर आने वाले सीरियन ऑर्थोडॉक्स पादरियों या दाँत चियारे रिश्तेदारों की तरफ़ से ‘कौन कौन है भला ?’ या ‘पहचानो तो सही’ कभी नहीं सुनायी पड़ा।
उलझेरा तो कहीं ज़्यादा गहरी, कहीं ज़्यादा गोपनीय जगह में छुपा हुआ था।
उन आरम्भिक, बिखराव-भरे अनाकार वर्षों में, जब स्मृतियाँ बस शुरू ही हुई थी, जब ज़िन्दगी अन्तहीन-प्रारम्भों से भरी थी और सब कुछ हमेशा-रहने-वाला था, एस्ताप्पेन और राहेल ख़ुद को इकट्ठा ‘मैं’ करके सोचते और अलग-अलग व्यक्तियों के रूप में ‘हम’ और ‘हमें’। मानों वे सियामी जुड़वों की कोई दुर्लभ नस्ल हों। दो शरीर, मगर एक जान।
अब, इतने वर्षो बाद, राहेल को याद आता है, कैसे वह एक रात एस्ताप्पेन के किसी दिलचस्प सपने पर हँसते हुए जागी थी ।
उसके पास कुछ और स्मृतियाँ भी हैं, जिन्हें सँजोये रखने का उसे कोई अधिकार नहीं है।
मसलन, उसे याद है (हालाँकि वह वहाँ मौजूद नहीं थी) कि सोडा-लेमन वाले ने अभिशाप टॉकीज़ में एस्ता के साथ क्या किया था। उसे टमाटर के उन सैंडविचों का स्वाद याद है-एस्ता के सैंडविचों का-जो एस्ता ने मद्रास मेल से मद्रास जाते हुए खाये थे।
और ये तो महज़ छोटी-छोटी चीज़ें हैं।
जो भी हो, अब वह एस्ता और राहेल को उन्हें करके सोचती है, क्योंकि अलग-अलग दोनों-के-दोनों अब वह नहीं रहे जो वे थे या कभी सोचते थे कि वे होंगे।
उनकी ज़िन्दगियों की अब एक सूरत-शक्ल है, क़द-बुत है। एस्ता की अपनी और राहेल की अपनी।
छोर, सरहदें, चहारदीवारियाँ, कगार और सीमाएँ, प्रेतों की एक टोली की तरह, उनके अलग-अलग क्षितिजों पर प्रकट हो गयी हैं-लंबी परछाइयों वाले बौने, धुँधले सीमान्त पर गश्त लगाते हैं। उन दोनों की आँखों के नीचे हल्के-हल्के अर्द्धचन्द्र बन गये हैं और अब उनकी उम्र उतनी ही है जितनी अम्मू की मरते वक़्त थीं। इकतीस।
न ज़्यादा।
न कम।
मगर एक करने-योग्य मरने-योग्य उम्र।
वे करीब-करीब बस पर ही पैदा हो चले थे, एस्ता और राहेल। वह कार, जिसमें बाबा, उनके पिता, अम्मू, उनकी माँ, को ज़चगी के लिए शिलौंग के हस्पताल में ले जा रहे थे, असम के चाय-बगान की घुमावदार सड़क पर खराब हो गयी थी। उन्होंने कार छोड़ दी थी और राज्य परिवहन की एक भीड़ भरी बस को हाथ दे कर रोका था। एक अजीब-सी करुणा से, जो बेहद गरीब लोगों की अपेक्षाकृत खुशहाल लोगों के लिए होती है या शायद महज़ इसलिए कि उन्होंने देखा था कि अम्मू का गर्भ कितना भारी-भरकम है, सीटों पर बैठी सवारियों ने पति-पत्नी के लिए जगह बना दी थी और बाक़ी के सफ़र के दौरान एस्ता और राहेल के पिता को उनकी माँ का पेट (जिसके भीतर वे दोनों मौजूद थे) हिलने-डुलने से बचाने के लिए थामे रहना पड़ा था। यह उनके तलाक़ और अम्मू के केरल लौटने से पहले की बात है।
एस्ता के अनुसार, अगर वे बस में पैदा हुए होते, तो उन्हें बाक़ी ज़िन्दगी बसों में मुफ़्त करने का अधिकार मिल गया होता। यह स्पष्ट नहीं था कि यह सूचना उसे कहाँ से मिली, या उसे इन बातों की जानकारी कैसे थी, लेकिन बरसों तक दोनों के मन में अपने माता-पिता के प्रति हल्की-सी रंजिश बनी रही कि उन्होंने दोनों को ज़िन्दगी भर बस में मुफ्त सफ़र करने की नियामत से वंचित कर दिया था।
उन्हें यह भी विश्वास था कि अगर वे ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर मारे गये तो उनके अन्तिम संस्कार का खर्च सरकार देगी। उन्हें इस बात का पक्का खयाल था कि जेब्रा क्रॉसिंग इसीलिए बने हैं। मुफ़्त अन्त्येष्टियों के लिए। यह अलग बात है कि आयमनम में या फिर कोट्टयम में भी, जो सबसे नज़दीकी शहर था, मरने के लिए एक भी पारपथ नहीं था, लेकिन कोचीन जाने पर, जो कार से दो घण्टे की दूरी पर था, उन्होंने कार की खिड़की से कुछ पारपथ जरूर देखे थे।
सरकार ने सोफ़ी मोल को दफ़्नाने का ख़र्च नहीं दिया, क्योंकि वह ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर नहीं मरी थी। उसकी अन्त्येष्टि आयमनम में हुई थी, पुराने गिरजे में जिस पर नया-नया रंग किया हुआ था। वह एस्ता और राहेल की ममेरी बहन थी, उनके मामा चाको की बेटी। वह इंगलैंड से मिलने-मिलाने के लिए आयी थी। एस्ता और राहेल के सात साल के थे जब वह मरी। सोफ़ी मोन लगभग नौ की थी। उसके लिए एक ख़ास बच्चों वाला ताबूत बना था।
साटन का अस्तर मढ़ा।
पीतल के चमकते हत्थों जड़ा।
रातें साफ़ होती हैं, मगर आलस और अवसाद-भरी उम्मीद से रची-बसीं।
लेकिन जून के शुरू में दक्षिण पश्चिमी मॉनसून टूट पड़ती है और फिर हवा और पानी के तीन महीने आते हैं और उनके बीच तीखी, चमकदार धूप की छोटी-छोटी परियाँ, जिन्हें रोमांचित बच्चे खेलने के लिए झपट लेते हैं। इर्द-गिर्द के देहाती इलाके पर एक निर्लज्ज हरियाली छा जाती है। टैपियोका की बाड़ों के जड़ पकड़ने और फूलने के साथ ही मेड़ें ओझल हो जाती हैं। ईंट की दीवार पर काई का हरापन चढ़ जाता है। काली मिर्च की लतरें बिजली के खम्बों पर साँप की तरह चढ़ती नज़र आती हैं। जंगली लताएँ मुर्रम के कँकरीले किनारों में फूट कर पानी में डूबी सड़कों पर पसर जाती हैं।
बाजारों में नावें चलने लगती हैं। और सड़कों पर पी.डब्लू.डी. के गड्ढ़ों में भरे पानी के डबरों में छोटी-छोटी मछलियाँ नमूदार होती हैं।
वर्षा हो रही थी जब राहेल आयमनम लौटी। तिरछी, रुपहली रस्सियाँ कच्ची मिट्टी को गोलियों की बौछार की तरह खूँदती हुईं उस पर बरस रही थीं। पहाड़ी पर बने पुराने घर ने अपनी ढलवाँ, तिकोनी छत किसी नीची टोपी की तरह कानों को ढँकते हुए पहन रखी थी। दीवारें, जिन पर काई की धारियाँ थीं, नरम हो गयी थीं और ज़मीन से ऊपर को चढ़ने वाली सीलन से कुछ-कुछ फूल आयी थीं। जंगल बनी बेतरतीब बगिया नन्हें-नन्हें जीवों की खुसफुस और दौड़-भाग से भरी हुई थी। झाड़ियों में दुबका एक धामन अपनी देह एक चमकते हुए पत्थर से रगड़ रहा था। पाले, प्रणयाकांक्षी मेढ़क काई-भरे पोखर में संगियों का तलाश करते, तैरते फिर रहे थे। एक भीगा नेवला मकान को जाने वाले, पत्तों से अटे, रास्ते पर कौंधता हुआ निकल गया।
मकान अपने आप में ख़ाली लग रहा था। खिड़कियाँ –दरवाजे़ बन्द थे। सामने का बरामदा वीरान था। साज-सज्जा रहित। लेकिन क्रोम के चमकते टेल-फ़िनों वाली, आसमानी रंग की प्लिमथ गाड़ी अब भी बाहर खड़ी थी और घर के भीतर बेबी कॉचम्मा अब भी जीवित थी।
वह राहेल की सबसे छोटी नानी-बुआ थी। उसके नाना की छोटी बहन। नाम तो उसका दरअसल नवोमी था, नवोमी आइप, लेकिन सब उसको बेबी कहकर बुलाते थे। बेबी कॉचम्मा वह तब बनी, जब वह इतनी बड़ी हो गयी कि बुआ बन सके। वैसे, राहेल उससे नहीं मिलने आयी थी। न नातिन को इस बारे में कोई भ्रम था, न नानी-बुआ को। राहेल तो दरअसल अपने भाई एस्ता को देखने आयी थी। वे डिम्बों-वाले जुड़वाँ थे। डॉक्टरों ने उन्हें ‘डाइज़ीगॉटिक’ कहा था। दो अलग-अलग, लेकिन एक ही समय में गर्भ धारण करने वाले, डिम्बों से जन्में। एस्ता-एस्ताप्पेन-अठारह मिनट बड़ा था।
वे कभी एक-जैसे नहीं लगे-एस्ता और राहेल, और जब वे बच्चे थे, सींकिया बाँहों और सपाट सीनों वाले, पेट के कीड़ों से परेशान, एल्विस प्रेस्ली मार्का बुल्ले सजाये, तब भी आयमनम वाले घर पर चन्दे के लिए अक्सर आने वाले सीरियन ऑर्थोडॉक्स पादरियों या दाँत चियारे रिश्तेदारों की तरफ़ से ‘कौन कौन है भला ?’ या ‘पहचानो तो सही’ कभी नहीं सुनायी पड़ा।
उलझेरा तो कहीं ज़्यादा गहरी, कहीं ज़्यादा गोपनीय जगह में छुपा हुआ था।
उन आरम्भिक, बिखराव-भरे अनाकार वर्षों में, जब स्मृतियाँ बस शुरू ही हुई थी, जब ज़िन्दगी अन्तहीन-प्रारम्भों से भरी थी और सब कुछ हमेशा-रहने-वाला था, एस्ताप्पेन और राहेल ख़ुद को इकट्ठा ‘मैं’ करके सोचते और अलग-अलग व्यक्तियों के रूप में ‘हम’ और ‘हमें’। मानों वे सियामी जुड़वों की कोई दुर्लभ नस्ल हों। दो शरीर, मगर एक जान।
अब, इतने वर्षो बाद, राहेल को याद आता है, कैसे वह एक रात एस्ताप्पेन के किसी दिलचस्प सपने पर हँसते हुए जागी थी ।
उसके पास कुछ और स्मृतियाँ भी हैं, जिन्हें सँजोये रखने का उसे कोई अधिकार नहीं है।
मसलन, उसे याद है (हालाँकि वह वहाँ मौजूद नहीं थी) कि सोडा-लेमन वाले ने अभिशाप टॉकीज़ में एस्ता के साथ क्या किया था। उसे टमाटर के उन सैंडविचों का स्वाद याद है-एस्ता के सैंडविचों का-जो एस्ता ने मद्रास मेल से मद्रास जाते हुए खाये थे।
और ये तो महज़ छोटी-छोटी चीज़ें हैं।
जो भी हो, अब वह एस्ता और राहेल को उन्हें करके सोचती है, क्योंकि अलग-अलग दोनों-के-दोनों अब वह नहीं रहे जो वे थे या कभी सोचते थे कि वे होंगे।
उनकी ज़िन्दगियों की अब एक सूरत-शक्ल है, क़द-बुत है। एस्ता की अपनी और राहेल की अपनी।
छोर, सरहदें, चहारदीवारियाँ, कगार और सीमाएँ, प्रेतों की एक टोली की तरह, उनके अलग-अलग क्षितिजों पर प्रकट हो गयी हैं-लंबी परछाइयों वाले बौने, धुँधले सीमान्त पर गश्त लगाते हैं। उन दोनों की आँखों के नीचे हल्के-हल्के अर्द्धचन्द्र बन गये हैं और अब उनकी उम्र उतनी ही है जितनी अम्मू की मरते वक़्त थीं। इकतीस।
न ज़्यादा।
न कम।
मगर एक करने-योग्य मरने-योग्य उम्र।
वे करीब-करीब बस पर ही पैदा हो चले थे, एस्ता और राहेल। वह कार, जिसमें बाबा, उनके पिता, अम्मू, उनकी माँ, को ज़चगी के लिए शिलौंग के हस्पताल में ले जा रहे थे, असम के चाय-बगान की घुमावदार सड़क पर खराब हो गयी थी। उन्होंने कार छोड़ दी थी और राज्य परिवहन की एक भीड़ भरी बस को हाथ दे कर रोका था। एक अजीब-सी करुणा से, जो बेहद गरीब लोगों की अपेक्षाकृत खुशहाल लोगों के लिए होती है या शायद महज़ इसलिए कि उन्होंने देखा था कि अम्मू का गर्भ कितना भारी-भरकम है, सीटों पर बैठी सवारियों ने पति-पत्नी के लिए जगह बना दी थी और बाक़ी के सफ़र के दौरान एस्ता और राहेल के पिता को उनकी माँ का पेट (जिसके भीतर वे दोनों मौजूद थे) हिलने-डुलने से बचाने के लिए थामे रहना पड़ा था। यह उनके तलाक़ और अम्मू के केरल लौटने से पहले की बात है।
एस्ता के अनुसार, अगर वे बस में पैदा हुए होते, तो उन्हें बाक़ी ज़िन्दगी बसों में मुफ़्त करने का अधिकार मिल गया होता। यह स्पष्ट नहीं था कि यह सूचना उसे कहाँ से मिली, या उसे इन बातों की जानकारी कैसे थी, लेकिन बरसों तक दोनों के मन में अपने माता-पिता के प्रति हल्की-सी रंजिश बनी रही कि उन्होंने दोनों को ज़िन्दगी भर बस में मुफ्त सफ़र करने की नियामत से वंचित कर दिया था।
उन्हें यह भी विश्वास था कि अगर वे ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर मारे गये तो उनके अन्तिम संस्कार का खर्च सरकार देगी। उन्हें इस बात का पक्का खयाल था कि जेब्रा क्रॉसिंग इसीलिए बने हैं। मुफ़्त अन्त्येष्टियों के लिए। यह अलग बात है कि आयमनम में या फिर कोट्टयम में भी, जो सबसे नज़दीकी शहर था, मरने के लिए एक भी पारपथ नहीं था, लेकिन कोचीन जाने पर, जो कार से दो घण्टे की दूरी पर था, उन्होंने कार की खिड़की से कुछ पारपथ जरूर देखे थे।
सरकार ने सोफ़ी मोल को दफ़्नाने का ख़र्च नहीं दिया, क्योंकि वह ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर नहीं मरी थी। उसकी अन्त्येष्टि आयमनम में हुई थी, पुराने गिरजे में जिस पर नया-नया रंग किया हुआ था। वह एस्ता और राहेल की ममेरी बहन थी, उनके मामा चाको की बेटी। वह इंगलैंड से मिलने-मिलाने के लिए आयी थी। एस्ता और राहेल के सात साल के थे जब वह मरी। सोफ़ी मोन लगभग नौ की थी। उसके लिए एक ख़ास बच्चों वाला ताबूत बना था।
साटन का अस्तर मढ़ा।
पीतल के चमकते हत्थों जड़ा।
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